अयोध्या विवाद की राजनीति? - Punjab Kesari
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अयोध्या विवाद की राजनीति?

अधिकतम राजनीतिक लाभ भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण अाडवाणी ने जिस चतुराई के साथ लिया उसमें अब नया

श्रीराम मन्दिर निर्माण को लेकर जिस प्रकार की भावुक राजनीति की जा रही है उसका आम जनता पर कोई असर इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि भारत के लोग संविधान की सत्ता को सर्वोपरि मानकर चलने वाले नागरिक हैं। अयोध्या के मुद्दे पर भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को गोलबन्द करके उसका अधिकतम राजनीतिक लाभ भाजपा के नेता श्री लालकृष्ण अाडवाणी ने जिस चतुराई के साथ लिया उसमें अब नया आयाम किसी भी तौर पर नहीं जोड़ा जा सकता है। इसकी असली वजह यह है कि हिन्दू समाज के सामने यह सत्य बाहर आ चुका है कि श्रीराम के नाम पर जो राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ उसने आर्थिक और सामाजिक तौर पर पूरे भारतीय समाज की जड़ें हिला कर रख दीं।

21वीं सदी के भारत को अचानक आठ सौ साल पहले के दौर में प्रवेश कराकर राजनीतिज्ञों ने जो सन्देश देना चाहा वह ‘आस्था’ के समक्ष संवैधानिक व्यवस्था को समाप्त करना ही था परन्तु इसकी ओट में जिस प्रकार की सामाजिक गतिविधियां सतह पर आनी शुरू हुईं उनसे समूचे भारत की एकता व अखंडता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। इसका सर्वाधिक विपरीत प्रभाव हिन्दू समाज के ही पिछड़े व दलित वर्ग पर पड़ा। इनके आर्थिक व सामाजिक उत्थान की वह धारा बीच में ही दम तोड़ती नजर आने लगी जिसके लिए संविधान में विशिष्ट व्यवस्था की गई है। जिस उत्तर प्रदेश में अयोध्या स्थित है उस राज्य की हालत यह है कि यहां दलितों के बच्चों की शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए जो कार्यक्रम 80 के दशक तक जोर-शोर से चल रहे थे वे सभी 90 के दशक से धीमी गति से रेंगने शुरू हो गए।

राज्य में विकास के नाम पर जो कुछ भी किया गया उस पर भी जातिवादी दलों के शासन के दौरान अपनी-अपनी मुहर लगाने की कोशिश की गई। मगर सबसे अधिक पीड़ाजनक यह रहा कि जो ग्रामीण जातियां धर्म और सम्प्रदाय की दीवारें तोड़कर अपने आर्थिक उत्थान के लिए संघर्षरत रहती थीं वे राम मन्दिर आन्दोलन के नाम पर सम्प्रदायों में बंटकर एक-दूसरे के विरुद्ध तलवारें तक खींचने लगीं। इसका विस्तार धीरे-धीरे अन्य उत्तरी राज्यों में भी हुआ जिससे शासन में बैठे लोग इसी आधार पर अन्य विकास के मुद्दों पर जवाबदेही से बचने के रास्ते ढूंढने लगे।

राजनीति का यह सबसे सरल रास्ता था जो भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में सफल होता दिखाई पड़ा लेकिन अयोध्या विवाद जहां था वहीं रहा और इतिहास के दस्तावेजों में लगातार अपनी जगह तलाशने के नाम पर राजनीति को लगातार आक्सीजन देता रहा। सांस्कृतिक धरोहर के रूप में कभी अयोध्या को प्रस्तुत किया गया तो कभी हिन्दू धर्म की पहचान के नाम पर मगर उस ‘अवध’ को भुला दिया गया जहां कभी ‘राम और रहमान’ के रुतबे को बराबर का एहतराम दिया जाता था। अवध के मुसलमान नवाबों ने हमेशा ही अयोध्या की महत्ता को सिर-आंखों पर रखा और अपनी सल्तनत पर ‘श्रीराम’ की निगेहबानी की अर्जियां लगाईं। उत्तर प्रदेश सरकार का राजचिन्ह ‘मछली और धनुष बाण’ उसी अवध रियासत के शाही निशान की पहचान के तौर पर आज भी जारी है।

भारत के ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का इससे बड़ा प्रतीक कोई दूसरा नहीं हो सकता। यदि बाबर के किसी सिपहसालार ने अयोध्या में श्रीराम जन्म स्थान पर मस्जिद तामीर करने की गुस्ताखी की थी तो अवध के नवाबों की हुक्मरानी के दौरान यह वीरान ही क्यों पड़ी रही? इस पर भी तो हमें गौर करना चाहिए। यह पूरा इलाका तो उस समय मुस्लिम शासन के आधीन ही था। यह भी तो विचार किया जाना चाहिए कि अवध के अन्तिम नवाब वाजिद अली शाह की मां बेगम हजरत महल ने अपने अंतिम दिन हिन्दू राष्ट्र नेपाल में गुजारने की दरख्वास्त खुद ही क्यों लगाई थी ? उनकी मजार काठमांडौ में आज तक मौजूद है। इतिहास के इन पन्नों को किस तरह बिन पढ़ा रखा जा सकता है। श्रीराम मन्दिर का प्रश्न दासता के प्रतीकों से जो जोड़ने की कोशिश करते हैं वे इतिहास को झुठलाते हैं।

बाबर को बादशाह का खिताब सबसे पहले गुरुनानक देव जी महाराज ने दिया था और उसे ताईद की थी कि ‘बाबर तू राज कर मगर जुल्म और सितम के बिना, तेरे लिए हर धर्म का बन्दा बराबर होना चाहिए।’ जिसे मेरी बात पर यकीन न हो वह भाई दर्शन सिंह रागी की गुरुवाणी के ‘शबद’ सुन ले। भारत को ‘हिन्दोस्तान’ नाम से भी गुरुनानक देव जी महाराज ने ही सम्बोधित और प्रचलित किया था। उन्होंने सबसे पहले कहा था ‘हिन्द की चादर’ लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल न निकाला जाए कि मैं अयोध्या में श्रीराम मन्दिर निर्माण का पक्षधर नहीं हूं। मेरी पक्की मान्यता है कि अयोध्या में श्रीराम जन्म स्थान पर मन्दिर निर्माण हो।

बेशक इस प्रागैतिहासिक काल की मान्यता के वैज्ञानिक एेतिहासिक प्रमाण न भी मिलें तब भी भारत के आमजनों के इस विश्वास का आदर किया जाना चाहिए और श्रीराम के मन्दिर का निर्माण किया जाना चाहिए मगर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद। जब मुकद्दमा न्यायालय में विचाराधीन है तो किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति को यह कहने से बचना चाहिए कि वह न्यायालय के फैसले की परवाह किये बिना ही मन्दिर बनाएगा। आखिरकार एेसा कहने वाला कौन हो सकता है? वही व्यक्ति हो सकता है जिसे भारत की लब्ध प्रतिष्ठित न्याय प्रणाली में विश्वास न हो?

इसके साथ ही मन्दिर या मस्जिद बनवाना सरकारों का काम नहीं होता है। यह काम राजनीतिक दलों का भी नहीं होता है बल्कि समाज का होता है और उन लोगों का होता है जो धर्म के माध्यम से समाज को सही दिशा देना चाहते हैं मगर न्यायालय की अवहेलना करके कोई भी व्यक्ति किस प्रकार समाज को सही दिशा दे सकता है ? याद रखना चाहिए कि गुजरात के सोमनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार सरदार पटेल ने स्वयं नहीं किया था बल्कि समाज के लोगों का एक ट्रस्ट बनाकर कराया था।

यह पूरी तरह अनुचित है कि किसी भी मुख्यमन्त्री या मन्त्री की सभा में कोई भी साधू-सन्त आकर मन्दिर बनाने की डींगें हांकने लगे और सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे मुकद्दमे का संज्ञान ही न ले। सर्वोच्च न्यायालय में जो मुकद्दमा चल रहा है वह तो केवल इस बात के लिए है कि अयोध्या के गिराये गए विवादित ढांचा स्थल के इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जो तीन भाग करके दो हिन्दू संस्थाओं को दिए हैं और एक को मुस्लिम संस्थाओं को दिया है क्या वह अंतिम है ? इसमें भी हिन्दुओं को दिए गए दो भागों में से एक भाग को श्रीराम लला या भगवान के बाल स्वरूप को दिया गया है। अतः मन्दिर तो बनना तय है ही फिर इसमें विवाद कहां है ?

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