हम जब धार्मिक मुद्दों पर आपस में झगड़ने लगते हैं तो भारत को इतना छोटा कर देते हैं कि इसकी पहचान किसी पिछली सदी के दौर में जीने वाले अविकसित देश के समान बनने का भ्रम पैदा हो जाता है। पाकिस्तान में ‘ईश निन्दा’ के आरोप से जिस तरह एक ईसाई महिला ‘असाबी मसीह’ को वहां के सर्वोच्च न्यायालय ने बरी किया उससे खफा होकर वहां के इस्लामी कट्टरपंथियों ने न केवल सड़कों पर प्रदर्शन करके हंगामा खड़ा किया बल्कि सर्वोच्च न्यायालय की खुलकर आलोचना की और उसके मुख्य न्यायाधीश तक के पुतले जला डाले। हद यह हो गई कि असाबी मसीह का वकील ही कट्टरपंथियों के डर से पाकिस्तान छोड़ कर भाग गया मगर यह इस्लामी देश वह पाकिस्तान है जिसने अब से लगभग 47 साल पहले अपने ही देश के हिस्से पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) के नागरिकों पर सिर्फ इसलिए जुल्मो-सितम की इंतेहा कर डाली थी कि वे अपनी बांग्ला संस्कृति को अपने धर्म इस्लाम में कोई अवरोध नहीं मानते थे और इस संस्कृति की धरोहर से अपनी पहचान को मापते थे।
उनकी जीवनशैली धर्म की संकीर्णता को तोड़ते हुए बांग्ला संस्कृति के मानवीय पक्ष की विशालता का अनुकरण करती थी और पूजा पद्धति में भेद को निजी स्तर पर देखती थी। यही वजह थी कि जब मार्च 1971 में इस देश के निर्माता बंग बन्धू शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान को स्वतन्त्र देश बंगलादेश बनाने की घोषणा हुई और मुक्ति संग्राम का श्रीगणेश हुआ तो अस्थाई सरकार के प्रधानमन्त्री श्री ताजुद्दीन अहमद को हिन्दू-मुसलमान का भेद भूल कर प्रत्येक बांग्लावासी का समर्थन मिला और 16 दिसम्बर 1971 को भारतीय सेना की मदद से तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो टुकड़ों में बांट डाला आैर नए ‘बंगलादेश’ का विधिवत उदय हुआ। यह बंगलादेश धर्मनिरपेक्ष देश घोषित हुआ और पूरे संसार में शेख मुजीब ने एेलान किया कि ‘आमार शोनार बांग्ला’ का वही राष्ट्रगान होगा जो गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था।
पूरी दुनिया में यह बांग्ला संस्कृति की एेसी विजय यात्रा थी जिसने 25 साल पहले ही अलग हुए पाकिस्तान के धार्मिक राष्ट्रवाद के परखचे उड़ा दिए थे। जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त दम तोड़ गया था और शेख मुजीब ने एेलान कर दिया था कि उनके देश का राष्ट्रीय पर्व ‘पोहला बैशाख’ (बैसाख महीने का प्रथम दिवस) ही होगा जिसे बांग्ला संस्कृति में ‘नववर्ष’ के रूप में मनाया जाता है। इसमें धर्म का कोई लेना-देना नहीं होगा, हर बंगलादेशी इस संस्कृति के अनुरूप नाचता-गाता और संगीतमय होकर इस पर्व को पारंपरिक रूप से मनाएगा। हमें अगर कुछ सीखना है तो हम बंगलादेश से क्यों न सीखें जहां 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना का साथ देने वाले मुजरिमों को फांसी पर लटकाने के लिए यहां की युवा पीढ़ी ने जबर्दस्त प्रदर्शन किया और जमाते इस्लामी जैसे संगठन के नेताओं के चेहरों से नकाब हटाने में कोई हिचक नहीं िदखाई। इस बंगलादेश को भी बाद में सैनिक सत्तापलट करके इस्लामी कट्टरवाद के रास्ते पर चलाने की कोशिश की गई मगर यहां के लोगों ने इस पर कोई तवज्जो नहीं दी और अपनी बांग्ला संस्कृति के मूल मानवीय तन्त्र को पकड़े रखा। इस बंगलादेश का भी अब इस्लाम ही राजधर्म है मगर यहां के लोगों के लिए हिन्दू व बौद्ध नागरिकों के धर्म स्थल और उनके त्यौहार अपने त्यौहार हैं। इसी प्रकार मुस्लिम नागरिकों के ईद व मोहर्रम पर्वों में भी हिन्दू नागरिकों की भागीदारी सहर्ष रहती है।
बेशक यहां के इस्लामी कट्टरपंथी इस देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत अपनी राजनीतिक जगह बनाने की कोशिशों में भारत विरोध और हिन्दू विरोध का स्वर भी भरते रहते हैं मगर इस देश की बांग्ला संस्कृति एेसे तत्वों को हाशिये पर रखने का काम इस तरह करती है कि यहां हर साल 2 अक्तूबर को भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर खुलकर सार्वजनिक कार्यक्रम होते हैं और गांधीवाद और अहिंसात्मक आन्दोलन के जरिये नागरिक अधिकारों की प्राप्ति पर बहसें होती हैं। यहां की राजधानी ढाका के ढाका देवी मन्दिर में दुर्गा पूजा के अवसर पर प्रधानमन्त्री शेख हसीना जाकर श्रद्धा व्यक्त करती हैं। यह सब एक इस्लामी देश में ही होता है जहां के आदिनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिए दो सौ एकड़ जमीन एक मुस्लिम नागरिक नूर मुहम्मद शिकदर ने ही दान में दी। हम जिस राम मन्दिर निर्माण के लिए लगातार उलझते जा रहे हैं और कभी तेवर नरम व गरम करते हैं, उसका सम्बन्ध हम भारतीयों से ही है। हम हिन्दू या मुसलमान हो सकते हैं मगर जमीन का कोई धर्म या मजहब नहीं है। हम यह बात क्यों नहीं समझना चाहते? सवाल पूर्वजों का बिल्कुल नहीं है बल्कि नई पीढ़ी का है कि हम उसे किस प्रकार का भारत देना चाहते। आजकल भारत में उत्सवों का समय चल रहा है।
कुछ दिन बाद ही दीपावली का पर्व आएगा और गोवर्धन व भैया दूज के पर्व के बाद देव दीपावली या गुरुनानक प्रकाश उत्सव या गंगा स्नान का पर्व आएगा। कुछ समय पहले ही मोहर्रम का महीना गुजरा है। हजरत इमाम हुसैन की स्मृति में भारत के हिन्दू हुसैनी ब्राह्मणों ने भी ताजिये निकाल कर उनकी शहादत को नमन किया। ये सभी पर्व धार्मिक हो सकते हैं मगर इनकी अंतर्निहित प्रेरणा मानवीय है और भारतीय संस्कृति का मूल यही भाव जाना जाता है। इसका प्रभाव पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में है और बंगलादेश जैसे कुछ देशों में तो यह भारत से भी अधिक समर्थ स्वरूप में दिखाई पड़ता है परन्तु इस उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय सांस्कृतिक विरासत धार्मिक पहचान को स्वयं में विलुप्त करने की विलक्षण क्षमता रखती है, इसकी मिसाल भी इसी उपमहाद्वीप के कई देश हैं। अतः अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण को लेकर जो भी उठापटक हो रही है उससे उस ‘फैजाबादी’ संस्कृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता जो अवध के नवाबी दौर के दौरान भी हिन्दू-मुस्लिम एकता की तहरीर रही है। भगवान राम का धनुष-बाण और इस्लाम धर्म में विशिष्ट स्थान रखने वाली मछली अवध के नवाबों का राजसी चिन्ह रहा जो आज भी उत्तर प्रदेश सरकार के शासकीय चिन्ह के रूप में जारी है। अतः हमें इसी दायरे में अयोध्या विवाद का हल भी निकाल लेना चाहिए। (क्रमशः)