अटल बिहारी का अनछुआ पक्ष - Punjab Kesari
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अटल बिहारी का अनछुआ पक्ष

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दरअसल स्व. अटल बिहारी जी का व्यक्तित्व राजनीति की उन परतों को खोलता था जो संसदीय लोकतन्त्र में किसी भी राजनीतिक दल के दायित्व और विरोध के बीच उस जिम्मेदारी का अहसास पैदा कराती थीं जिससे लोकतन्त्र में आम आदमी की निष्ठा सतत् बनी रह सके और वह अपने एक वोट के अधिकार बोध से सदैव सजग रह सके। यह कोई छोटी बात नहीं थी कि देश का प्रधानमन्त्री पद संभालने के बाद जब उन पर सत्ता की जिम्मेदारी पड़ी तो उन्हाेंने अपने से पिछली कांग्रेस सरकारों की नीतियों का बिना किसी हिचक के समर्थन किया और उन्हें जारी रखते हुए संसद में ही कहा कि विपक्ष में रहते हुए बहुत कुछ करना पड़ता है। असल में बात सोवियत संघ से रक्षा सन्धि और पाकिस्तान से शिमला समझौते की शुरू हुई तो प्रधानमन्त्री के तौर पर श्री वाजपेयी ने दोनों का पुरजोर समर्थन किया और इन्हें राष्ट्रहित में बताया परन्तु जब लोकसभा में बैठे कांग्रेस के नेताओं ने उन्हें याद दिलाया कि जनसंघ में रहते हुए आपने ही इनका विरोध किया था तो वाजपेयी जी ने वह उत्तर दिया था​ जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। असल में 1971 में रक्षा सन्धि होने पर और 1972 में शिमला समझौता होने पर स्व. वाजपेयी के नेतृत्व में ही विरोधी पार्टी जनसंघ ने इन दोनों दस्तावेजों की प्रतियां दिल्ली के रामलीला मैदान में जला कर विरोध-प्रदर्शन किया था।

बहुत कम चर्चा इस बात की हुई है कि 1996 में 13 दिन के प्रधानमन्त्री रहने के बाद स्व. वाजपेयी ने चुनावी राजनीति से संन्यास लेने की इच्छा जाहिर की थी। उन्होंने कहा था कि आज की राजनीति की हालत मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं रह गई है। उनकी यह चिन्ता राजनीति के लगातार गिरते स्तर के प्रति थी। यह उस राजनीतिज्ञ की वेदना थी जिसने नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी का दौर देखा था आैर इन नेताओं की अपार लोकप्रियता के बीच अपनी पार्टी जनसंघ (भाजपा) की विचारधारा को आगे बढ़ाया था। यह सरल कार्य नहीं था क्योंकि श्री वाजपेयी उस वैचारिक धारा से आते थे जिस पर कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के षड्यन्त्र में शामिल होने का आरोप लगा था। इस विकट राजनीतिक माहौल में कांग्रेस के समानान्तर वैकल्पिक विचारधारा का प्रचार यदि भारत में हो सका तो उसका श्रेय अकेले श्री वाजपेयी को दिया जा सकता है। अक्सर यह समस्या भाजपा में जनसंघ काल से रही है कि उसके पास आर्थिक नीतियों का अभाव रहा है और जनसंघ के मूल चुनाव घोषणापत्र में जिस बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का प्रतिपादन किया गया तो उसका खुला प्रचार करना भी इस पार्टी के लिए इसलिए संभव नहीं था कि एेसा करते ही इस पार्टी को पूंजीपतियों और महाजनों की पार्टी सिद्ध किया जा सकता था लेकिन चतुर वाजपेयी ने बहुत ही सावधानी के साथ जो रास्ता चुना उसकी कल्पना तक आज के राजनीतिज्ञ नहीं कर सकते हैं।

उन्होंने अपनी वाकपटुता और व्यंग्यात्मक शैली से समाजवादी अर्थव्यवस्था की उन कमियों को निशाना बनाया जो लोकतन्त्र में आम आदमी का ध्यान तुरन्त खीचती थीं। 1969 में जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण व राजा-महाराजाओं के प्रिविपर्स उन्मूलन करके स्व. इंदिरा गांधी ने देश की राजनीति को बदलने का अभियान चलाया तो स्व. वाजपेयी ने उसकी काट अपनी सार्वजनिक सभाओं के माध्यम से इस प्रकार निकाली कि शहरों का प्रबुद्ध समझा जाने वाला मतदाता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। वह आर्थिक मसलों को जिस प्रकार रखते थे उसकी बानगी देखिये- ‘भाइयो, मैं रूस भी गया हूं और अमेरिका भी, रूस में मैंने देखा कि सुबह-सुबह लोगों की लाइनें सरकारी खाद्य डिपो के सामने लगी हुई हैं। मैंने पूछा कि ये लाइनें किसके लिए हैं तो मुझे बताया गया कि ये लाइनें डबल रोटी के लिए लगी हुई हैं। मित्रो, जो देश बड़े-बड़े हथियार बना सकता है और विश्व शक्ति है, वह अपने लोगों को डबल रोटी भी जरूरत पड़ने पर सुलभ नहीं करा सकता? वहां डबल रोटी तक राशन से मिलती है।’

असल में उनका यह विचार लोगों को जनसंघ के आर्थिक दृष्टिकोण की तरफ लाने का प्रयास इस तरह था कि बिना बाजार मूलक आर्थिक प्रणाली का जिक्र किए ही उसके लाभ लोगों को बताये जाएं। स्व. वाजपेयी ने विपक्ष का सांसद रहते हुए संसद में दिए गए अपने भाषणों में कभी भी बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की वकालत नहीं की मगर जब 1991 में स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने भारत के बाजार विदेशी कम्पनियों के लिए खोलने शुरू किए तो उन्होंने इसका विरोध नहीं किया यह रहस्य कुछ दिनों से ज्यादा नहीं बना रह सका कि स्व. नरसिम्हा राव उन्हें गुरु जी कह कर क्यों पुकारते थे? दरअसल वह दौर एेसा था जिसमें भाजपा के सहयोग के बिना नरसिम्हा राव सरकार चला ही नहीं सकते थे क्योंकि भाजपा यदि विरोध में खड़ी हो जाती तो नरसिम्हा राव सरकार दो महीने नहीं चल सकती थी क्योंकि इस पार्टी में तब नेहरू-इंदिरा विरासत अनाम सी हो गई थी। स्व. वाजपेयी जब चाहते कांग्रेस में भारी विद्रोह करा सकते थे परन्तु उन्होंने यह रास्ता न चुनकर नरसिम्हा राव की आर्थिक नीतियों का समर्थन करना उचित समझा और बाद में प्रधानमन्त्री बनने पर उन्हीं नीतियों को आक्रामक ढंग से चालू रखा। हकीकत में यह भारत के आवरणीय परिवर्तन का नहीं बल्कि आधारभूत परिवर्तन का दौर था और वाजपेयी पूरी प्रक्रिया को पर्यवेक्षक की हैसियत से देख रहे थे लेकिन यह काम अटल जी ने संसदीय प्रणाली को मजबूत बनाते हुए इस तरह किया कि देश एक चक्र से निकल कर दूसरे चक्र में कब प्रवेश कर गया किसी को पता ही नहीं चला।

इतिहास की यह साधारण घटना किस प्रकार नहीं थी इसका फैसला तो आने वाले समय में इतिहासकार ही कर सकते हैं परन्तु इतना निश्चित है कि स्व. वाजपेयी की इसमें अहम भूमिका थी। यह स्व. वाजपेयी की राजनीति का अनछुआ पहलू है। उनका आज अन्तिम संस्कार हो गया है और देश का एेसा सपूत सदा-सदा के लिए देवलोक को सिधार गया है जिसने संसदीय प्रणाली को तब भी मजबूत बनाये रखा जब उनकी सरकार पर संकट के बादलों का साया घुमड़ता रहा, मगर उन्होंने इसका सामना केवल और केवल संसदीय औजारों से ही किया। उनके व्यक्तित्व का यह सबसे चमकदार पहलू था जिसके लिए भारत का लोकतन्त्र उनका सदैव ऋणी रहेगा।

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