नरेन्द्र मोदी सरकार में आर्थिक सलाहकार पद पर रहे अरविन्द सुब्रह्मण्यम एक बार फिर चर्चा में हैं। यह चर्चा उनके इस बयान पर हो रही है कि नोटबंदी देश के लिए एक बड़ा क्रूर आैर मौद्रिक झटका थी, इससे अर्थव्यवस्था को काफी नुक्सान पहुंचा है। लोगों को उनके वक्तव्य से काफी हैरानी भी हुई और साथ ही उन पर सवाल भी खड़े किए हैं। अक्सर देखा जाता है कि जो अधिकारी सेवा में रहते चुप रहते हैं लेकिन पद छोड़ने या सेवानिवृत्त होने के बाद उनकी अंतरात्मा जाग जाती है। अरविन्द सुब्रह्मण्यम प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री हैं और लोग उन्हें सम्मानित व्यक्ति के तौर पर जानते हैं लेकिन आज उनकी आवाज की पवित्रता और शुद्धता पर किस आधार पर यकीन किया जा सकता है। जब कोई व्यक्ति पद के दबाव में क्या सही आैर क्या गलत है, इस बात को छिपा लेता है तो स्वभाविक तौर पर यह संदेह किया जा सकता है कि वह अन्य कारणों से सच को दबा भी सकता है। सबसे बड़ी विसंगति यह है कि विपक्ष अरविन्द सुब्रह्मण्यम के वक्तव्य को हथियार बनाकर इस्तेमाल का रहा है।
अरविन्द सुब्रह्मण्यम अक्तूबर 2014 से लेकर जून 2018 तक केन्द्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे। उन्होंने रघुराम राजन के इस्तीफे के बाद पद सम्भाला था तब रघुराम राजन को आरबीआई गवर्नर बनाया गया था। सुब्रह्मण्यम ने दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज से ग्रेजुएशन की थी और एनवीए की डिग्री इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद से ली थी। बाद में उन्होंने एमफिल आैर डीफिल की डिग्री यूके की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से हासिल की थी। उनके इस्तीफे की खबर भी वित्तमंत्री अरुण जेतली ने फेसबुक पोस्ट में दी थी। उन्होंने कहा था कि वह परिवार के साथ रहना चाहते हैं। उन्होंने कहा था कि वह अपनी पुरानी जिन्दगी में लौटना चाहते हैं जिसमें रिसर्च करना, लिखना आैर पढ़ाना शामिल है।
इस्तीफे के ऐलान के बाद उन्होंने जीएसटी, जनधन, आधार को मोबाइल से जोड़ने को अपनी बड़ी उपलब्धि बताया था। विदेश की धरती पर लौटकर उन्होंने जो लिखा और अनुसंधान किया उसमें उन्होंने नोटबंदी के मसले पर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर डाला। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि उनकी अंतरात्मा इस समय ही क्यों जागी? नोटबंदी से हुए फायदों और नुक्सान के बारे में देश की जनता जानती है, उसे अच्छे-बुरे की पहचान है लेकिन अरविन्द सुब्रह्मण्यम जैसे अर्थशास्त्री काे यह बात समझने में दो वर्ष लग गए। उनकी इन बातों को लोग हास्यास्पद करार दे रहे हैं क्योंकि जब वे पद पर थे तो उन्होंने अपनी कोई राय व्यक्त नहीं की थी। ऐसा लगता है कि अरविन्द सुब्रह्मण्यम केवल अपनी किताब ‘ऑफ काउंसिलः द चैलेंज ऑफ दी मोदी-जेतली इकोनोमी’ की बिक्री बढ़ाने के लिए बयानबाजी कर रहे हैं।
मुझे याद है कि 2जी लाइसेंस घोटाले में लेखा महानियंत्रक कार्यालय के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी आर.पी. सिंह ने अपनी रिटायरमेंट के बाद घोटाले की रकम को लेकर विवाद खड़ा कर दिया था। उन्होंने स्वयं कबूल किया था कि उन्हें दबाव में नुक्सान की रकम बदलनी पड़ी थी आैर अन्तिम रिपोर्ट पर अपने हस्ताक्षर करने पड़े थे। दो हजार करोड़ रुपए आैर एक लाख 76 हजार करोड़ रुपए में जमीन-आसमान का अन्तर है। इतना बड़ा अन्तर अपनी कलम से दर्ज करने वाला कोई भी ईमानदार अफसर तुरन्त उसी समय विद्रोह पर उतारू हो जाता और सच को सारी दुनिया के सामने उजागर कर देगा लेकिन आर.पी. सिंह ने ऐसा नहीं किया और उनकी अंतरात्मा रिटायरमेंट के बाद ही जागी। सबसे अहम सवाल यह है कि रिटायर हो चुके या पद छोड़ चुके अफसरों के बयानों पर देश यकीन क्यों करे। अगर हम ऐसे ही वक्तव्यों या बड़े लोगों द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर यकीन करने लगे तो यह देश रोज-रोज नई-नई परिकथाओं का महाकाव्य बन जाएगा। आज जो अफसर किसी एक विशेष सरकार के हित में काम करने लगता है, कल को कोई दूसरा रिटायर अफसर उसी सरकार के विरुद्ध भी कुछ कह सकता है। इसका कोई अन्त नहीं।
हमारा लोकतंत्र अन्ततः जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही तय करता है, अफसरों की जवाबदेही जनता के प्रति होती है मगर इस जवाबदेही का एक विशेष अंग संविधान के प्रति ईमानदारी बरतने का भी होता है। अरविन्द सुब्रह्मण्यम नोटबंदी के बाद बोलते तो अच्छा होता आैर तब उनके विचारों पर बहस शुरू होती। नोटबंदी के बाद जो बहस शुरू हुई उसमें अरविन्द कहीं नहीं थे। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था कुशाग्र बुद्धि अाैर जनता की समस्याओं से परिचित राजनीति चलाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी नोटबंदी के चलते जनता को होने वाली दिक्कतों का पता था, तभी तो उन्होंने देशवासियों से 50 दिन का समय मांगा था। देशवासियों ने उनकी बातों को स्वीकार किया। यह अलग बात है कि भ्रष्ट बैंकिंग व्यवस्था ने नोटबंदी का पलीता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रधानमंत्री के इरादे नेक थे तभी तो नोटबंदी के बाद हुए कुछ विधानसभा चुनावों में मतदाताओं ने भाजपा को विजयी बनाकर प्रधानमंत्री के नोटबंदी के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी थी। सरकारों की आलोचना के लिए प्रैस ही काफी है इसलिए रिटायर्ड अफसरों या अर्थशािस्त्रयों की नई-नई कहानियां बेसिर-पैर की लगती हैं।