आनन्द शर्मा का भी मोह भंग - Punjab Kesari
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आनन्द शर्मा का भी मोह भंग

कांग्रेस पार्टी के पिछले 136 वर्ष से ऊपर के इतिहास का यह सबसे बुरा दौर गुजर रहा है

कांग्रेस पार्टी के पिछले 136 वर्ष से ऊपर के इतिहास का यह सबसे बुरा दौर गुजर रहा है और इस तरह गुजर रहा है कि पार्टी का हर छोटे से बड़ा लेकर कार्यकर्ता और नेता सोच रहा है कि उस महान राष्ट्रीय विरासत का क्या होगा जो इस पार्टी से बावस्ता है? कांग्रेस का इस स्थिति में पहुंचना देश व लोकतन्त्र के लिए किसी भी रूप में हितकर नहीं है क्योंकि यह पार्टी भारत की आजादी की सिपहसालार रही है और इसने स्वतन्त्र भारत में लोकतन्त्र स्थायी बनाए रखने के लिए मजबूत संवैधानिक संस्थाओं की नींव डाली है। बेशक इन संस्थाओं के साथ इमरजेंसी काल (1975 से 1977 तक) के दौरान बहुत छेड़छाड़ हुई मगर देश की जनता ने इस दौर को उलटने में अपनी संवैधानिक शक्ति का ही इस्तेमाल किया और गाड़ी को पुनः पटरी पर डाल दिया। मगर वर्तमान समय में कांग्रेस का वह आशियाना बिखरता नजर आ रहा है जिसकी एक-एक ईंट को देश पर कुर्बान होने वाले राष्ट्रभक्त व महाविद्वान जननेताओं ने जोड़ा था।
मौजूदा समय की मांग है कि कांग्रेस पार्टी अपनी वह भूमिका सशक्त ढंग से निभाए जो समय के बदलते चक्र ने उसे सौंपी है। यह भूमिका विपक्षी दल की है। इसमें यदि यह पार्टी असफल होती है तो अन्ततः लोकतन्त्र की ही जबर्दस्त हानि होगी क्योंकि इस पार्टी के अलावा पूरे देश में जितनी विरोधी पार्टियां हैं वे सभी राष्ट्रीय स्तर समूचे भारत की एकता व अखंडता का विमर्श खड़ा करने में न केवल असमर्थ हैं बल्कि अयोग्य भी हैं। कांग्रेस को छोड़ कर शेष सभी विरोधी दलों के लक्ष्य इतने संकीर्ण व जाति व वर्गवादी हैं कि उनकी लिप्सा किसी न किसी प्रकार केवल क्षेत्रीय सत्ता हथियाने तक ही रहती है। वर्तमान में देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता का विमर्श समूचे राष्ट्र को अपने मान्य सुस्थापित सिद्धान्तों के अनुसार सुदृढ़ व विकसित करने का है जिसका विकल्प केवल कोई दूसरा राष्ट्रीय विमर्श ही हो सकता है। परन्तु कांग्रेस के साथ दिक्कत यह हो गई है कि यह अपने राष्ट्रीय विचारों के संशोधनवादी अन्तर्द्वन्द से लगातार घिरती जा रही है जिसकी वजह से इसकी वैचारिक स्पष्टता धुंधली होती जा रही है। साथ ही इसकी सांगठनिक क्षमता सत्ता से बाहर रहने की वजह से निस्तेज होती जा रही है।
राजनैतिक पार्टियों में पीढ़ीगत परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है मगर यह कार्य कभी भी अनुभव की पूंजी की उपेक्षा करके नहीं किया जाता। यह सीख पार्टी को किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं महात्मा गांधी ने ही दी थी। हाल ही में पार्टी के निष्ठावान व तपे हुए नेता श्री आनंद शर्मा ने जिस प्रकार हिमाचल प्रदेश कांग्रेस संचालन समिति की अध्यक्षता से इस्तीफा दिया है उसका मतलब यही है कि पार्टी के भीतर महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा जमाने की होड़ में नौसिखिये राजनीतिज्ञ पुराने मंजे हुए नेताओं की उपेक्षा कर रहे हैं और उन्हें केवल सजावटी सामान बनाये रखना चाहते हैं। हिमाचल प्रदेश में इसी वर्ष में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और हिमाचल श्री शर्मा का गृह राज्य है। वह राज्यसभा में लम्बे अर्से तक इसी प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं और सदन में हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी का पक्ष भी बहुत साफगोई के साथ रखते रहे हैं। संसदीय मामलों में भी उन्हें महारथ हासिल रहा है।
दरअसल कांग्रेस उनके खून में है। वह हरियाणा के प्रथम मुख्यमन्त्री पं. भगवत दयाल शर्मा के भांजे हैं, जिसे उन्होंने सार्वजनिक रूप से प्रकट करने में हमेशा कंजूसी बरती। मगर यह एक हकीकत है। उनका संचालन समिति से इस्तीफा देना बताता है कि प्रदेश में पार्टी का काम खस्ता हाल बना कर उन्हें मात्र दिखावे के लिए ऊंचे पद पर बैठा दिया गया। इससे पता चलता है कि आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का हश्र क्या हो सकता है।  पाठकों को याद होगा कि ऐसा ही काम कांग्रेस ने उत्तराखंड में भी किया था। इस राज्य में भी विधानसभा चुनाव होने थे और यहां के सबसे बड़े नेता व पूर्व मुख्यमन्त्री श्रीमान रावत को पार्टी के नेताओं ने पंजाब में उलझा रखा था। अन्तिम समय में उन्हें उत्तराखंड लाया गया और नतीजे में कांग्रेस पार्टी बुरी तरह चुनाव हार गई। गुटबाजी कांग्रेस की संस्कृति में इस तरह समा चुकी है कि इससे छुटकारा पाने में यह अपने इस बुरे दौर में भी सफल नहीं हो पा रही है।
श्री शर्मा से पहले जम्मू-कश्मीर में भी यही हुआ था। इस राज्य की कांग्रेस पार्टी की प्रचार समिति का अध्यक्ष श्री गुलाम नबी आजाद को बना दिया गया था, जिसे उन्होंने स्वीकार ही नहीं किया। कांग्रेस को समझना चाहिए कि अब उसके पास सत्ता नहीं है केवल संगठन है। राजस्थान व छत्तीसगढ़ ही दो राज्य हैं जहां उसकी सरकारें हैं। यदि अखिल भारतीय स्तर पर वह प्रत्येक राज्य में अपने संगठन को सुदृढ़ व गुट रहित अभी नहीं बना सकती तो कब बनायेगी। मगर हो उल्टा ही रहा है पुरानी आदतें छूट ही नहीं रही हैं। उसका परिणाम भी कांग्रेस भुगत रही है मगर स्वयं में सुधार करने की इसके बावजूद जरूरत महसूस नहीं करती। पार्टी के वरिष्ठ व अनुभवी नेताओं की सर्वाधिक उपयोगिता बुरे दौर में ही होती है। राजनीति का यह बहुत सामान्य व साधारण गुर होता है। स्वयं इन्दिरा गांधी जब 1969 में प्रधानमन्त्री रहते हुए अपनी ही पार्टी में बुरी तरह घिर गई थीं तो उन्होंने उस समय मध्य प्रदेश में बैठे राजनैतिक संन्यासी स्व. प. द्वाराक प्रसाद मिश्र की शरण ही ली थी और उनसे गुरु मन्त्र लेकर कामराज, मोरारजी देसाई, अथुल्य घोष व निजलिंगप्पा जैसे महारथियों को जमीन दिखा दी थी। वैसे भी राजनीति में कभी कोई रिटायर नहीं होता क्योंकि सार्वजनिक जीवन का अर्थ ही जनसेवा होता है। मगर क्या गजब हो रहा है कि कांग्रेस में कि एक के बाद एक अनुभवी लोग किनारा कर रहे हैं और नेतृत्व चैन की बंशी बजा रहा है। 

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