अमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-3 - Punjab Kesari
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अमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-3

भारत और पाकिस्तान के बीच पहले युद्ध की शुरूआत 22 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के मुजफ्फराबाद पर कबाइली

भारत और पाकिस्तान के बीच पहले युद्ध की शुरूआत 22 अक्तूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के मुजफ्फराबाद पर कबाइली हमले के रूप में हुई, फिर मीरपुर और पुंछ के इलाके हमलावरों का शिकार होते गए। इस हमले का कारण स्पष्ट था कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करना चाहता था, इसके अलावा उसकी एक और  रणनीति भी थी, पूरे इलाके से हिन्दुओं और सिखों को बाहर खदेड़ना, इसमें वह सफल भी हुआ। हजारों लोगों को  कत्ल कर दिया गया। आतंक के माहौल में मीरपुर, मुजफ्फराबाद और  पुंछ आदि इलाकों से बड़ी संख्या में लोग जम्मू की तरफ आ गए। इन शरणार्थियों ने सोचा था कि कुछ दिनों की बात है। आक्रमणकारियों को खदेड़ दिए जाने के बाद वे अपने घरों को लौट जाएंगे, लेकिन वह दिन आज तक नहीं आया। जिस मीरपुर, मुजफ्फराबाद और पुंछ आदि के इलाकों पर पाक का कब्जा हुआ, इसी इलाके को पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है और भारत इसे पाक के कब्जे वाला कश्मीर यानि पीओके कहता है। जम्मू-कश्मीर में शरणार्थी हुए 12 लाख परिवारों को आज 75 वर्ष पूरे हो गए लेकिन दर्द अभी जिंदा है।
पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानी ‘पी.ओ.के.’ की बात जिन्ना से ही शुरू की जाए। आज आप पी.ओ.के. हो आएं, आपको खुद पता चल जाएगा, जिन्ना की उनकी नजर में क्या इज्जत है? पाक अधिकृत कश्मीर का आम नागरिक आप को वहां चीखता-चिल्लाता मिलेगा कि ‘‘कौन है जिन्ना? कहां है जिन्ना? उसी नामुराद ने सारा खेल बिगाड़ दिया। सारी उम्र ‘ट्रू-नेशंस थ्यौरी’ कह के चीखता रहा। बार-बार हमें बरगलाता रहा। हम अलग, हमारा आइन अलग, हमारी सोच अलग, हमारा अदब अलग, हमारी जुबान अलग, हमारे रहनुमा अलग, हमें अलग मुल्क चाहिए। क्या मिल गया उसे इस मुल्क में? वह खुद आखिरी वक्त तक इसी डर से गुजरता रहा कि लोग गो​लियां न चला दें। क्या पाकिस्तान अलग मुल्क बन पाया? क्यों ईस्ट पाकिस्तान बंगलादेश में तब्दील हो गया? वह भी तो इसी इस्लाम को मानने वाले थे। उन्हें भी सरकार बनाने का हक था। शेख मुजीब जीत कर आए थे लेकिन उन्हें मिला  क्या?
उन्हें मिली पंजाबी मुसलमानों की दहशत! उन्हें मिला भुट्टो का वह तोहफा जिसने जुल्म की सारी हदें पार कर दीं। ऐसा क्यों हुआ? सिर्फ इसलिए कि वह भले हम वतन थे, इस्लाम को मानने वाले थे पर हम जुबान न थे। वह उस जुबान को बोलते थे जो जुबान वहां हिन्दुस्तान में उस सूबे में बोली जाती थी, जो पश्चिम बंगाल कहलाता है। उनमें पंजाब की मिट्टी की तासीर न थी। वह पंजा​बियों की तरह ऊंचे लम्बे-तगड़े नहीं दिखते थे। वहां 1971 में हमला करके औरतों के साथ जो सलूक किया गया, वह बड़ा खौफनाक था। ऐसा सलूक कोई इंसान नहीं कर सकता। हमारा वास्ता हैवानों से पड़ गया है।’’ ये हैं, आज उस पाक अधिकृत कश्मीर के रहने वालों के पाकिस्तान के प्रति उद्गार। यह बात सच है कि भाषा और संस्कृति के हिसाब से ईस्ट पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में किसी भी प्रकार का मेल नहीं था। 
असलियत यह है कि बंगलादेश बनने के पीछे की पृष्ठभूमि में धर्म हार गया और संस्कृति जीत गई। आज भी भारत में कई ऐसे इलाके हैं जहां मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग सदियों से रहते आ रहे हैं और वह हर हिन्दू पर्व और त्यौहार को उतनी ही श्रद्धा से मनाते हैं, जितनी श्रद्धा से हिन्दू मनाते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल, झारखंड शायद ही कोई ऐसा मुस्लिम परिवार हो जो गांवों में होली न खेलता हो। छठ पर्व न करता हो, और ठीक इसी के अनुरूप हिन्दू परिवार भी मजारों पर चादरें चढ़ाते अवश्य देखे जा सकते हैं। मजहबी उन्माद सियासत के द्वारा फैलाया जाता है। पाकिस्तान की बुनियाद ही उन्माद पर रखी गई है, वह इस उन्माद का सारे विश्व में निर्यातक है। अब भाषा की बात लें। उर्दू भाषा मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों की भाषा मानी जाती है, परन्तु दूर न जाएं तो देखेंगे कि हिन्दुस्तान में ही उर्दू के लेखक और शायर हिन्दू इतनी बड़ी संख्या में हुए, जिनका कोई सानी नहीं। जैसे मुंशी प्रेम चन्द, राजेन्द्र सिंह बेदी, उपेन्द्र नाथ अश्क, कृष्ण चन्दर, फिराक गोरखपुरी और जगन्नाथ आजाद। इनके अलावा सैकड़ों नामचीन शायर और लेखक हिन्दू हैं।
उर्दू अदब को इनका जो योगदान है, उसे सारा मुल्क बड़ी अच्छी तरह से जानता है। बात हम कर रहे थे पाक अधिकृत कश्मीर यानी पी.ओ.के. की। आज पी.ओ.के. का नागरिक महसूस करता है कि उन पर उर्दू लाद दी गई है। कश्मीरी जुबान से धीरे-धीरे उन्हें महरूम किया जा रहा है। जैसा कि ‘आल पार्टी नैशनल एलायंस’ के सरदार इश्तियाक अहमद फरमाते हैं-‘‘हमारे खिलाफ एक साजिश हो रही है। यह ऐसी साजिश है जिसे बड़ी चालाकी से रचा गया है। अगर हमने इस साजिश का पर्दाफाश करके अपने कश्मीरियों को न बचाया तो हम फना हो जाएंगे। यह साजिश है हमारा वजूद मिटाने की। पाकिस्तानी हुक्मरान चाहते हैं कि हम पर उर्दू लाद दी जाए और तीसरी क्लास के बाद कश्मीरी जुबान का कहीं भी जिक्र न हो। हम इस्लाम पर यकीन तो रखते हैं, हम भी अल्लाह-रसूल को मानने वाले लोग हैं, परन्तु हमारी तहजीब और हमारी रिवायतें किसी भी मायने में इन पाकिस्तानियों से नहीं मिलतीं।
हमारा अलग अदबी ‘लिटरेचर’ है और हमारी अलग पहचान है। हम ‘सूफी कल्ट’ पर भी विश्वास करते हैं, और हमारे दिलों में त्रिशूल वाले शिवबाबा का भी बड़ा एहतराम है। हमारे स्कूलों में हाल के वर्षों में जो किताबें भेजी गई हैं, वे उर्दू में हैं, उनमें ऐसा बहुत कुछ है, जो हमारे ‘कल्चर’ से नहीं मिलता। इन पाकिस्तानियों के हमारे सिर पर रहते हमारी कश्मीरियत महफूज नहीं रह सकती।’’ 
आप जब उपरोक्त उद्गारों को देखेंगे, तो आपको यह अहसास होगा कि आम कश्मीरी आज वहां क्या महसूस कर रहा है। कश्मीरियों को अपनी तहजीब और संस्कृति खतरे में नजर आ रही है। (क्रमशः)
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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