सविधान के समक्ष सब बराबर - Punjab Kesari
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सविधान के समक्ष सब बराबर

समान नागरिक आचार संहिता के बारे में विधि आयोग को अब तक 20 लाख लोगों ने अपने सुझाव

समान नागरिक आचार संहिता के बारे में विधि आयोग को अब तक 20 लाख लोगों ने अपने सुझाव भेजे हैं। मगर यह माना जा सकता है कि इनमें से अधिसंख्य सुझाव ऐसे नागरिकों के ही होंगे जिन्हें कानून की पेचीदगियों के बारे में ज्यादा जानकारी या समझ नहीं होगी और ये इस विषय पर फैली गलत अवधारणाओं के शिकार भी हो सकते हैं। सबसे पहले हमें धर्मनिरपेक्ष भारत के सन्दर्भ में नागरिक आचार संहिता के मुद्दे पर हिन्दू-मुसलमान विमर्श से बाहर निकल कर वैज्ञानिक नजरिये से विचार करना होगा। यह विचार यह है कि संविधान या कानून की नजर में हर धर्म के मानने वाले व्यक्ति के अधिकार एक समान और बराबर होने चाहिए। किसी भी धर्म की स्त्री के अधिकार भी बराबर उसी प्रकार हों जिस प्रकार इनकी व्याख्या हमारा संविधान करता है। सवाल मुसलमानों को हिन्दुओं के बराबर लाने या किसी अन्य के धर्म के मानने वालों को किसी दूसरे धर्म के बराबर लाकर खड़ा करने का बिल्कुल नहीं है बल्कि संविधान प्रदत्त स्त्री-पुरुष को बराबर के अधिकार देने के साथ उनके मूल नागरिक अधिकारों की सुरक्षा और कर्त्तव्यों का है।
 किसी भी मजहब की विशिष्टता को कायम रखते हुए उसके स्त्री व पुरुषों को मूल अधिकारों को देने का है। इसमें कोई भी धर्म आड़े नहीं आता है। धर्म का सम्बन्ध किसी भी व्यक्ति का ईश्वर या उसकी सत्ता से होता है। वह भारत के नागरिक के रूप में जो अधिकार प्राप्त करता है उनका इस्तेमाल करना उसका हक है। अतः स्त्री चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम अथवा किसी अन्य धर्म की, समाज व परिवार में बराबरी के अधिकार पाना उसका हक बनता है। अलग-अलग धर्मों के घरेलू कानूनों या पर्सनल लाॅ में यदि इस बारे में विभिन्नता या भेदभाव है तो उसे समाप्त किया जाना ही समान नागरिक आचार संहिता का लक्ष्य हो सकता है। मगर यह काम भी इतना सरल नहीं है, जैसा कि मैंने कुछ दिनों पहले ही लिखा था कि सबसे पहले हमें शादी की व्याख्या ही करनी होगी और तय करना होगा कि हर धर्म की कन्या के लिए विवाह की आयु एक ही हो। साथ ही लिव इन रिलेशन में रहने वाली स्त्रियों के अधिकारों के बारे में भी स्पष्ट कानूनी प्रावधान करने होंगे और शादी को भी व्याक्यायित करना होगा। एक ही लिंग के दो व्यक्तियों के बीच शादी का मामला भी कानूनी पचड़े में पड़ा हुआ है। इसे भी खोल कर बताना होगा। विवाह केवल दो विरोधी लिंगों के व्यक्तियों के बीच में ही हो सकता है, इसे भी पुनः स्पष्ट करना होगा। बेशक इसका मतलब यह नहीं है कि निकाह और विवाह संस्कार एक ही तरीके से होंगे मगर इनमें बंधने वाली स्त्रियों के अधिकार एक समान होंगे। 
जहां तक तलाक के कानून का सवाल है तो इसमें भी एक रूपता लानी पड़ेेगी और वैध तलाक को धर्म के दायरे से ऊपर रख कर देखना होगा। यह भी कहा जा रहा है कि हिन्दू संयुक्त परिवार को जो आय कर में छूट मिलती है, उसे समाप्त किया जाये अथवा अन्य धर्मों के परिवारों पर भी इसे लागू कर दिया जाये। हमें यह भी समझना होगा कि 1956 तक टुकड़ों में पारित हुआ ‘हिन्दू कोड बिल’ अत्यन्त प्रगतिशील कानून था। मगर शातिर किस्म के लोगों ने इसमें भी नुक्ते लड़ा कर जगह निकाल ली है। खास कर बहुविवाह के बारे में। अतः एक समान नागरिक आचार संहिता लागू करते हुए हमें इन खामियों का भी ध्यान रखना होगा। 
असली सवाल यह है कि संविधान जो अधिकार स्त्री को देता है वह उसे सम्पूर्णता में मिले और इस मार्ग में उसका धर्म आड़े न आये। जिस भी धर्म में स्त्री-पुरुष के बीच सम्पत्ति के बंटवारे से लेकर अन्य घरेलू मामलों में भेदभाव होता है, उसे खत्म किया जाये। स्त्री भी एक नागरिक इकाई है और उसका व्यक्तिगत सम्मान व गौरव भी संविधान का मामला है। इस हकीकत को सभी धर्मों के मठाधीश स्वीकार करें। हम गर्व से कहते हैं कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है तो इसी देश की किसी खास सम्प्रदाय की महिला के अधिकार कैसे कम हो सकते हैं? स्त्री का सम्मान किसी धर्म का निजी मामला किसी सूरत में नहीं है बल्कि यह मानवीय अधिकारों का मामला है और हिन्दू नागरिक हिन्दू-मुसलमान होने से पहले एक इंसान है। भारत का पूरा संविधान इंसानियत पर ही आधारित है। बाबा साहेब अम्बेडकर हिन्दू कोड बिल इसीलिए लाये थे क्योंकि हिन्दू धर्म शास्त्रों में स्त्री की स्थिति ‘दासी’ की बना कर रख दी गई थी। समान नागरिक आचार संहिता को हमें इसी दृष्टि से देखना होगा और बिना किसी धर्म की रीतियों या परंपराओं में जाये बिना केवल संविधान द्वारा दिये गये अधिकारों के बारे में सोचना होगा। जहां तक आदिवासी व जनजाति समाज का सम्बन्ध है तो उनके अधिकार संविधान की अनुसूची पांच, छह व सात में पूरी तरह सुरक्षित हैं। संविधान सभा में जब बहस हो रही थी तो इन अनुसूचियों को संविधान के भीतर संविधान तक कहा गया था। मगर हमारे संविधान निर्माता बहुत दूरदर्शी थे और भारत की हकीकत इसलिए जानते थे कि उन्हाेंने अपना खून-पसीना इस देश की मिट्टी में बहाया था।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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