अकाली दल का संकट - Punjab Kesari
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अकाली दल का संकट

शिरो​मणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल के इस्तीफा देने के बाद 104 वर्ष पुरानी पार्टी में

शिरो​मणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल के इस्तीफा देने के बाद 104 वर्ष पुरानी पार्टी में संकट गहरा गया है। शिरोमणि अकाली दल की स्थापना 14 दिसम्बर 1920 में हुई थी। शिरोमणि अकाली दल कांग्रेस के बाद दूसरी पुरानी पार्टी है। पार्टी कई मौकों पर पहले भी​ बिखरती रही है और इसके कई नेताओं ने अपनी अलग पार्टियां भी बनाई हुई हैं। 80 के दशक में ऐसा दौर भी आया जब पार्टी कई हिस्सों में बंट गई। यह वह दौर था जब राज्य में आतंकवाद चरम पर था। उस समय यह पार्टी अकाली दल लोंगोवाल और अकाली दल यूनाइटेड में बंट गई थी। यह विभाजन उस समय हुआ जब सिमरनजीत सिंह मान दल के अध्यक्ष थे।

लोगोंवाल ग्रुप का नेतृत्व संत हरचरण सिंह लोगोंवाल ने किया जबकि अकाली दल यूनाइटेड का नेतृत्व जोगिन्द्र सिंह ने किया। साल 1985 की 20 अगस्त को लोंगोवाल का देहांत हो गया, जिसके बाद इसका नेतृत्व सुरजीत सिंह बरनाला ने संभाला और 8 मई 1986 में शिरोमणि अकाली दल (बरनाला) और शिरोमणि अकाली दल (बादल) में बंट गई। यही नहीं साल 1987 में शिअद तीन समूहों में बंट गई। पहला-बरनाला ग्रुप, दूसरा- बादल ग्रुप और तीसरा जोगिंदर सिंह ग्रुप। साल 1986 की 8 मई को बादल ग्रुप, यूनाइटेड और अकाली ग्रुप, सिमरनजीत सिंह ग्रुप व जोगिंदर ग्रुप एक-दूसरे में जुड़ गए और 15 मार्च, 1989 में अकाली दल लोंगोवाल, अकाली दल (मान) और अकाली दल (जगदेव सिंह तलवंडी) अपनी गतिविधियां अलग-अलग चलाते रहे।

इसके बाद अकाली दल (बादल) के सिमरनजीत सिंह मान ने अकाली दल से अलग पार्टी बना ली जिसे अकाली दल (अमृतसर) कहा गया। यह दल आज भी सक्रिय है। जबकि अन्य गुटों ने अकाली दल (पंथक) का गठन किया जो लंबे समय तक काम नहीं कर पाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि पंजाब की सियासत शिरोमणि अकाली दल और बादल परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही है। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का राष्ट्रीय राजनीति में भी काफी प्रभाव और सम्मान था। उन्हें अकाली राजनीति का बाबा बोहड़ (वटवृक्ष) माना गया। सुखबीर सिंह बादल को बेशक विरासत में सियासत अपने पिता प्रकाश सिंह बादल से मिली लेकिन उनका राजनीतिक सफर विवादों से भरा रहा है।

उनके साथ पहला विवाद उस समय ही जुड़ गया था जब 2009 में पंजाब विधानसभा का सदस्य न होने के बावजूद उन्हें पंजाब का उपमुख्यमंत्री बना दिया गया था। सुखबीर सिंह बादल ने केन्द्र की राजनीति से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की थी लेकिन वह पंजाब की राजनीति में सक्रिय रहे। शिरोमणि अकाली दल जिस अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है उसे देखते हुए अब कई सवाल उठने लगे हैं कि क्या शिरोमणि अकाली दल का नेतृत्व बादल परिवार के ही किसी सदस्य के पास रहेगा या पार्टी का नेतृत्व कोई बाहर का नेता करेगा। बादल का यह फैसला पार्टी नेतृत्व के एक वर्ग द्वारा की जा रही बगावत के बीच आया है और कुछ दिनों पहले ही उन्होंने सिख धर्म में धार्मिक प्राधिकरण के मुख्य केंद्र अकाल तख्त से धार्मिक दुराचार के आरोपों के लिए उनकी सज़ा पर अपना फ़ैसला जल्द से जल्द करने का आग्रह किया था।

ये आरोप 2007 और 2017 के बीच की गई कथित गलतियों से जुड़े हैं, जिनके बारे में अकाल तख्त का मानना है कि इससे ‘‘पंथ की छवि को गहरा नुक्सान पहुंचा है और सिख हितों को नुक्सान पहुंचा है”। इसमें 2015 की बेअदबी की घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा न देना और 2007 के ईशनिंदा मामले में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को माफ़ करना शामिल है। बादल के इस्तीफे ने अकाली दल को दोराहे पर खड़ा कर दिया है, क्योंकि 1996 से ही उनका परिवार इसकी कमान संभाल रहा है। बादल को अपने नेतृत्व के लिए लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि पार्टी का चुनावी प्रभाव तेजी से कम हो रहा है, जिसका नतीजा 2022 के विधानसभा चुनावों में रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गया, जब पार्टी को सिर्फ तीन सीटें मिलीं। इस साल लोकसभा चुनावों में इसका वोट शेयर 2019 के 27.5 प्रतिशत से घटकर 13.4 प्रतिशत रह गया।

इसने राज्य की 13 लोकसभा सीटों में से सिर्फ एक सीट जीती। जुलाई माह में असंतुष्टों के वरिष्ठ नेता जिनमें बीबी जागीर कौर, परमिन्दर सिंह ढींढसा, गुरप्रताप सिंह और प्रोफैसर प्रेम सिंह चंदुमाजरा ने अकाली दल सुधार लहर के नाम से अलग गुट बना ​लिया और इस गुट की ​शिकायत पर ही अकाल तख्त ने सुखबीर सिंह बादल को तनखैय्या घो​षित कर दिया। अकाल तख्त ने उनकी सियासी गतिविधियों में भाग लेने पर भी पाबंदी लगा दी। अकाली दल की राजनीति में टकराव तो प्रकाश सिंह बादल और वर्षों तक शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी अध्यक्ष रहे गुरचरण सिंह टोहरा में भी होता रहा है लेकिन तीन दशकों तक अकाली दल का नेतृत्व बादल परिवार ही कर रहा है।

पंजाब की राजनीति के विशेषज्ञ इस्तीफे को सुखबीर सिंह बादल का मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं। यह भी स्पष्ट है कि सुखबीर सिंह बादल ने यह कदम पंथक सियासत और पंथ की एकजुटता के सहारे भंवर में फंसे अकाली दल को बाहर निकालने और अपनी राजनीतिक जमीन पुनः हासिल करने के लिए उठाया है। देखना होगा कि सुखबीर बादल किस तरह से अपनी ​सियासी जमीन दोबारा पाने की को​शिश करते हैं। ​शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और अकाली दल में अभी भी सुखबीर सिंह बादल को बहुमत का समर्थन प्राप्त है।

आदित्य नारायण चोपड़ा

Adityachopra@punjabkesari.com

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