ईवीएम मशीन और बैलेट पेपर का मुद्दा विपक्षी दलों द्वारा फिर से उठा दिया गया है। इसका सम्बन्ध सीधे उस चुनाव आयोग से है जो भारत के संविधान के तहत एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष व स्वायत्तशासी संवैधानिक संस्था है। संसद के बजट अधिवेशन के चलते विभिन्न विपक्षी दलों ने राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता श्री शरद पवार के निवास पर बैठक करके चुनाव आयोग को यह याद दिलाया कि ईवीएम मशीनों के चुनावों में प्रयोग करने व इनकी विश्वसनीयता के बारे में इन दलों ने पहले सवाल पूछे थे उनका लिखित उत्तर अभी तक नहीं दिया गया। इस सन्दर्भ में एक सवाल बहुत वाजिब तौर पर खड़ा किया जाता है कि जिस देश जापान ने ईवीएम मशीनों का निर्माण किया था उसी ने इनका उपयोग करना क्यों बन्द कर दिया? इसके साथ ही दुनिया के जितने भी विकसित यूरोपीय देश माने जाते हैं उनमें से भी किसी में इस मशीन का चुनावों में प्रयोग नहीं होता। यहां तक कि दुनिया के सर्वाधिक विकसित देश अमेरिका में भी ईवीएम मशीनें प्रयोग में नहीं लाई जातीं। आखिरकार इसकी क्या वजह हो सकती है, इस बारे में भी स्वाभाविक तौर पर आम भारतीय के मन में सवाल उठ सकता है?
चुनाव आयोग लगातार ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता को लेकर संजीदा बना रहता है और जब भी इस बारे में सवाल उठाये जाते हैं वह विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को अपने दफ्तर में बुला कर उनके सामने इन मशीनों का प्रदर्शन करके इसमें छेड़छाड़ करने की चुनौती फैंक देता है। जाहिर तौर पर राजनैतिक दल टैक्नोलॉजी विशेषज्ञ नहीं होते जिससे वे बिना विशेषज्ञों की मदद के अपना पक्ष सिद्ध कर सकें। हालांकि उन्हें टैक्नोलॉजी विशेषज्ञों को लाने की भी अनुमति होती है। मगर मूल सवाल यह है कि मशीन का निर्माण मनुष्य का दिमाग ही करता है अतः मतदाता और मतपत्र के बीच में किसी तीसरी शक्ति के विद्यमान रहने की पूरी संभावना रहती है। जबकि भारत का चुनाव कानून जनप्रतिनिधित्व अधिनियम कहता है कि मतदाता और मतपत्र अर्थात वोटर और वोट पाने वाले प्रत्याशी के बीच में किसी भी प्रकार से अथवा किसी भी रूप में कोई तीसरी अदृश्य शक्ति तक नही होगी।
मतदाता और प्रत्याशी के बीच कोई तीसरा तत्व किसी भी रूप में नहीं रहना चाहिए क्योंकि ऐसा होते ही मतदान की गोपनीयता के भंग होने का खतरा पैदा हो जायेगा। यह बहुत ही पेचीदा और बारीक कानूनी मुद्दा है जिसकी समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय तक में हो सकी है। इसके बाद ही सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि चुनावों में ईवीएम मशीनों के साथ वीवी पैट मशीनों या वोट रसीदी मशीनों को भी लगाया जाये जिससे मतदाता यह देख सके कि मशीन में जिस प्रत्याशी के चुनाव निशान के आगे वह बटन दबा रहा है उसका वोट उसे मिला है या नहीं। परन्तु यह विधि भी पूरी तरह दोषमुक्त नहीं कही जा सकती क्योंकि विपक्षी नेताओं समेत कई टैक्नोलॉजी विशेषज्ञ यह आशंका व्यक्त कर चुके हैं कि चुनाव में प्रयोग की जाने वाली मशीनों को इस प्रकार निर्देशित किया जा सकता है कि उनमें पहले से ही किसी विशेष प्रत्याशी के चुनाव निशान पक्ष में वोट भर दिये गये हों जिनका प्रदर्शन उनके मतदान केन्द्रों पर रखे जाने के समय न होता हो। इसे तकनीकी भाषा में प्रोग्रेमिंग कहा जाता है। मगर इससे भी ऊपर सवाल यह है कि जब चुनाव कानून साफ कहता है कि वोटर का वोट पूरी तरह गुप्त है तो उसकी गोपनीयता भंग होने की आशंका ही क्यों पाली जाये।
आखिरकार कोई तो वजह होगी जिससे अमेरिका व जापान जैसे देश भी इन मशीनों का प्रयोग नहीं करते हैं। इंटरनेट के जमाने में इन मशीनों को किस हद तक विश्वसनीय माना जा सकता है। जब इन मशीनों में इंटरनेट के जरिये ही प्रत्याशियों के नाम उनके चुनाव निशान भरे जाते हैं तो अन्य कुछ क्यों असंभव हो सकता है। जब डिजिटल रुपयों के लेन-देन में सारी सुरक्षा होने के बावजूद धोखाधड़ी हो जाती है तो ईवीएम मशीनों में तो सिर्फ चिप लगाने का मामला होता है। मतदाता अपना वोट जिस प्रत्याशी को देता है उसकी पूरी जानकारी तो मशीन में भरी होती है इसका मतलब सीधा है कि मतदाता और प्रत्याशी के बीच में मशीन मौजूद है जिसे किसी मनुष्य ने ही बनाया है। इसके साथ ही इन मशीनों के रख-रखाव पर ही चुनाव आयोग को करोड़ों रुपये प्रति वर्ष खर्च करना पड़ता है और इनका रिकार्ड भी रखना पड़ता है। मशीनों के खराब हो जाने की स्थिति में रिकार्ड भी सुरक्षित नहीं रह सकता। जबकि बैलेट पेपर और मतदाता के बीच में किसी भी तीसरी अदृश्य शक्ति के आने की शून्य संभावना होती है और यह विधि पूरी तरह वैज्ञानिक है क्योंकि बैलेट पेपरों के रखरखाव पर भी बहुत कम खर्च आता है और इनके माध्यम से मतदाता के मन में किसी प्रकार का खटका भी नहीं रहता। वह जानता है कि मुहर वहीं लगेगी जहां उसकी इच्छा है। वह बैलेट पेपर को मोड़ कर जब बक्से में डालता है तो पूर्ण आत्मविश्वास से भरा होता है क्योंकि बैलेट पेपर व उसके बीच में कोई तीसरी शक्ति काम नहीं कर रही होती। परन्तु टैक्नोलॉजी के प्रेम में अति उत्साह में भरे होने की वजह से ईवीएम मशीनों को प्रयोग करने की गलती भी भारत की सरकार ने ही की और 1986 में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में बिना दूरदर्शिता दिखाये तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने संशोधन करके बैलेट पेपर की जगह ईवीएम मशीनों के प्रयोग की अनुमति दे दी। इसके दुष्परिणामों के बारे में तब विचार करने की किसी ने जरूरत ही नहीं समझी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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