दो वर्ष पूर्व हुई पाकिस्तान के खिलाफ सेना की सर्जिकल स्ट्राइक( झपट्टामार कार्रवाई) का वीडियो अब जारी करने का औचित्य क्या हो सकता है? क्या भारत की सेना की किसी भी कार्रवाई की तसदीक की जरूरत होती है? सेना भारत के शौर्य और वीरता का प्रतिबिम्ब होती है, वह दुश्मन के खिलाफ जो भी कार्रवाई करती है उसे देश के सत्तारुढ़ राजनैतिक नेतृत्व की ही नहीं बल्कि समूचे राजनैतिक जगत की स्वीकृति प्राप्त होती है। इसकी वजह यह है कि सेना का चरित्र पूरी तरह अराजनैतिक होता है और उसकी किसी भी कार्रवाई का कोई राजनैतिक आयाम नहीं होता बल्कि केवल राष्ट्रीय सुरक्षा होता है, जिसका लाभ लेने की कोशिश कोई भी राजनैतिक दल किसी भी सूरत में नहीं कर सकता और न ही कोई राजनैतिक दल इस मुद्दे पर सस्ती सियासत कर सकता है। जब भारत की सेना दुश्मन के विरुद्ध अपने रणबांकुरों का प्रयाण कराती है तो देश का हर एक व्यक्ति उसके साथ-साथ चलता है जिससे भारत विजयी हो। मगर क्या कयामत है कि सेना की उस सर्जिकल स्ट्राइक को ‘फुटबाल’ बना दिया गया है जो उसने पाक अधिकृत कस्मीर में घुस कर की थी और आतंकवादियों के कई हमलावर ठिकानों को उड़ा दिया था।
दो साल पहले जब इस कार्रवाई की घोषणा की गई थी तो पाकिस्तान ने इसे फर्जी तक बता कर अपनी शर्मिदंगी छुपाने की कोशिश की थी। मगर भारतीय सेना के कमांडरों ने सीना ठोक कर कहा था कि पाकिस्तान सर्जिकल स्ट्राइक की हकीकत को नकार नहीं सकता है। इसी पर बात खत्म हो जानी चाहिए थी मगर सियासत के चलते एेसा नहीं हुआ और तब कुछ राज्यों के होने वाले चुनावी मैदान में इस सैनिक कार्रवाई के पोस्टर दिखाई देने लगे। इससे सियासत गर्माने लगी और सेना की कार्रवाई एक चुनावी मुद्दा तक बन गई। सवाल न भाजपा का है न कांग्रेस का बल्कि असली सवाल भारतीय सेना की रणनीतिक चतुराई का है। इसका जितना ज्यादा प्रचार किया गया उतना ही पाकिस्तान ने बदले की भावना से भर कर भारतीय सीमाओं पर ज्यादा अतिक्रमण करके अपनी झेंप मिटाने की कोशिश की। दर असल एेसी कार्रवाईयां जब होती हैं तो दुश्मन को आगाह नहीं किया जाता क्योंकि उससे आगे का रास्ता मुश्किल हो जाता है। सर्जिकल स्टाइक का मतलब ही चुपचाप दुश्मन को साफ करके उसे इस तरह तिलमिलाता छोड़ना होता है कि वह अपने ऊपर हुए हमले का बयान भी न कर सके और भीतर से लगातार डरा भी रहे।
मगर हमने तो सियासत में अपने झंडे गाड़ने के लिए खुद ही एेलान पर एेलान ही नहीं बल्कि पोस्टर छाप-छाप कर इसका श्रेय लेना शुरू कर दिया और अपनी ही पीठ थपथपानी शुरू कर दी। दूसरी तरफ विपक्षी राजनैतिक दलों ने इस कार्रवाई पर ही प्रश्न चिन्ह लगाने की हिमाकत कर डाली। इससे सबसे बड़ा नुकसान हमने जो किया है उसका अनुमान फिलहाल लगाना कठिन है। सवाल यह नहीं है कि कुछ राजनैतिक दलों ने सत्तारुढ़ पार्टी द्वारा इस सैनिक कार्रवाई का चुनावी मैदान में श्रेय लेने से बौखला कर अपनी गैर तार्किक व अनावश्यक प्रतिक्रियाएं क्यों दीं बल्कि सवाल यह है कि सेना के राजनीतिकरण की कोशिश क्यों हुई? पाकिस्तान के खिलाफ मौजूदा सरकार को आवश्यक कार्रवाई करने की स्वतन्त्रता देने पर भारत का समूचा विपक्ष एक राय है। सभी विपक्षी दल यह सार्वजनिक रूप से संसद से लेकर सड़क तक पर कह चुके हैं कि पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए मोदी सरकार जो भी रणनीति बनायेगी और जो भी कार्रवाई करेगी सभी उसके साथ चट्टान की तरह खड़े होंगे। यह नीति अब से नहीं चल रही है बल्कि तब से चालू है जब केन्द्र में श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तो लोकसभा में विपक्ष की कांग्रेस नेता श्रीमती सोनिया गांधी ने साफ कहा था कि विपक्ष भाजपा नीत एनडीए सरकार को पाकिस्तान के मामले में पूरा समर्थन देगा।
इस नीति में अभी तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ है तो क्यों सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे को बेवजह उछाला जा रहा है? सेना का धर्म लड़ना होता है, उसने अपना धर्म बखूबी निभाया और इसके लिए किसी प्रकार के प्रचार की दरख्वास्त भी नहीं की तो क्यों राजनैतिक दल उसके नाम पर खुद बांस पर चढ़ कर शाबाशी लेने की जुगत भिड़ा रहे हैं? भारत की सेना तो वह है जिसने 1971 में पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो भागों में बांट दिया था। तब की प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी ने तो जनरल मानेकशा को तब पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) को फतेह करने के लिए एक महीने से ज्यादा का समय देते हुए उन्हें सैनिक रणनीति बनाने की खुली छूट दी थी मगर उन्होंने यह काम सिर्फ 14 दिनों में ही निपटा कर भारत को ही नहीं बल्कि पूरे विश्व को आश्चर्य में डाल दिया था।
क्या हमें एेसी सेना की कार्रवाई की वीडियो फिल्म दिखाने की जरूरत है? इसके शौर्य की कहानियां तो भारत में बच्चा जन्म लेते ही सुनने लगता है। यही तो भारत की सेना की महानता है कि इसे राजनीति के उस कारोबार से कोई लेना-देना नहीं है जिसमें राजनीतिज्ञ एक-दूसरे की कमीज को गन्दली बताते हुए अपने उजले होने के सबूत देते फिरते हैं। बंगलादेश युद्ध जीतने का श्रेय हमने जनरल मानेकशा को दिया और उन्हें देश का पहला फील्ड मार्शल बनाया। सेना ने तो यह काम राजनीतिज्ञों पर ही छोड़ दिया था। मगर अब हम उल्टी गंगा बहाना क्यों चाहते हैं? क्या लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा बेवजह ही दिया था।