अफस्पा : जोखिम भरा कदम - Punjab Kesari
Girl in a jacket

अफस्पा : जोखिम भरा कदम

NULL

भारतीय संसद ने अफस्पा यानी सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम-1958 को लागू किया था जाे कि ऐसा कानून है, जिसे उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में लागू किया जाता है। यह कानून सुरक्षा बलों और सेना को कुछ विशेषाधिकार देता है। असम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड समेत देश के पूर्वोत्तर में अफस्पा को एक सितम्बर 1958 को लागू किया गया था। बाद में आतंकवाद के चलते चंडीगढ़ और पंजाब भी इस अधिनियम के दायरे में आए और आतंकवाद का दौर खत्म होने पर 1997 में इसे वहां पर समाप्त कर दिया गया।

जम्मू-कश्मीर में 1990 में लागू किया गया था और तब से यह कानून वहां लागू है। सरकार विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषाई, क्षेत्रीय समूहों, जातियों, समुदायों के बीच विवादों के कारण या फिर आतंकवादी हिंसा के चलते क्षेत्र को उपद्रवग्रस्त घोषित करती है।अफस्पा को लेकर पिछले कुछ वर्षों से काफी विवाद रहा है और इस कानून की काफी आलोचना की जाती रही है। तथ्य यह है कि इस अधिनियम के तहत किसी भी सैन्य बल अधिकारी को फायरिंग का अधिकार है, इसलिए यह अधििनयम बेरहम लगता है। 31 मार्च 2012 को संयुक्त राष्ट्र ने भारत से कहा था कि भारतीय लोकतंत्र में अफस्पा का कोई स्थान नहीं है, इसलिए इसको रद्द किया जाना चाहिए। मानवाधिकार संगठन भी इसकी आलोचना करते रहते हैं कि इसमें दुरुपयोग, भेदभाव और दमन शामिल है। मई 2015 में त्रिपुरा में कानून व्यवस्था की स्थिति को देखते हुए 18 वर्षों बाद अफस्पा को हटा दिया गया था।

हालांकि कई राज्य अभी भी इसके दायरे में हैं। जम्मू-कश्मीर में तनाव और आतंकवादी गतिविधियों के मद्देनजर अफस्पा जारी है लेकिन इस पर सियासत भी काफी होती रही है। 2009 में तो इस अधिनियम के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी थी। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था कि इस अधिनियम को चरणबद्ध ढंग से हटाने के मामले में उनकी सरकार आगे बढ़ेगी लेकिन सेना ऐसा करने का लगातार विरोध करती रही है। इस कानून के तहत सेना को किसी भी व्यक्ति को बिना कोई वारंट के तलाशी या गिरफ्तार करने का विशेषाधिकार है। सेना के जवानों को कानून तोड़ने वाले व्यक्ति पर फायरिंग का भी पूरा अधिकार प्राप्त है। अगर इस दौरान उस व्यक्ति की मौत भी हो जाती है तो उसकी जवाबदेही फायरिंग करने या आदेश देने वाले अधिकारी पर नहीं होती। सख्त कानूनों के दुरुपयोग की आशंकाएं हमेशा रहती हैं। जिस प्रकार पोटा कानून का काफी दुरुपयोग हुआ था, बाद में इसे रद्द कर दिया गया था। पूर्वोत्तर राज्यों में फर्जी मुठभेड़ों में अनेक लोगों की मौतों, एक्स्ट्रा जूडिशियल किलिंग के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसले दिए हैं। कई सैन्य कर्मियों के खिलाफ अदालतों में केस चले। पूर्वोत्तर भारत में सुरक्षा बलों पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं और जम्मू-कश्मीर में भी बार-बार बवाल मचता रहा है।

सवाल यह है कि आतंकवादियों से मुठभेड़ों के दौरान जवानों पर जब लोग पत्थर बरसाते हैं तो उस समय जवान क्या करें? या तो खुद पत्थर खाकर भी आतंकवादियों से लोहा लें। जवान के सामने सबसे बड़ा सवाल यह होता है कि वह संयम से काम ले और पत्थरों से घायल होता रहे या फिर गोली चलाए। निश्चित रूप से वह खुद को बचाने के लिए गोली ही चलाएगा। अब रक्षा और गृह मंत्रालय अफस्पा को हटाने या इसके प्रावधानों को कमजोर बनाने के लिए विचार-विमर्श कर रहे हैं। इस पर विचार किया जा रहा है कि अफस्पा को मानवीय कैसे बनाया जाए? विचार-विमर्श अफस्पा के सैक्शन-4 और 7 पर केन्द्रित रहा है और विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों पर भी गौर किया गया। इससे पहले भी अफस्पा के प्रावधानों को कमजोर करने की कोशिशें हुई हैं लेकिन परिणाम शून्य ही रहा है।

अहम सवाल यह भी है कि क्या मानवअधिकार केवल आतंकवादियों और उनके समर्थकों के हैं, पत्थरबाजों के हैं, क्या सैनिक इन्सान नहीं है? आजादी के बाद से ही भारतीय सशस्त्र सेनाओं को लोकतंत्र की शानदार संस्था के रूप में विकसित होते देखा है। इक्का-दुक्का घटनाओं के चलते सेना को बदनाम करने की प्रवृत्ति पर मुझे काफी दुःख होता है। जम्मू-कश्मीर की सीमाओं और राज्य में स्थिति ठीक नहीं है। पाक की फायरिंग और आतंकी हमलों में जवान लगातार शहीद हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में क्या अफस्पा के प्रावधानों को कमजोर करने की कोशिश जवानों की शहादत को कम करके आंकने जैसा ही होगा। सेना अध्यक्ष जनरल विपिन रावत ने अपनी राय स्पष्ट कर दी है कि अफस्पा पर किसी पुनर्विचार या इसके प्रावधानों को हल्का बनाने का समय अभी नहीं है।

भारतीय सेना मानवाधिकारों की रक्षा के लिए पर्याप्त सावधानी बरत रही है। सेना की कोशिश होती है कि नुक्सान कम से कम हो। उनका वक्तव्य शोपियां में पथराव कर रहे लोगों पर सेना की फायरिंग में दो नागरिको की मौत के बाद आया है। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने इस सम्बन्ध में सेना के जवानों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है। अगर जवानों से अफस्पा का रक्षा कवच हटा दिया जाता है तो फिर सेना कैसे काम कर पाएगी, सैन्य बलों में भर्ती कौन होगा? मानवाधिकार उल्लंघन करने वाले बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं को अपना प्रभाव अलगाववादियों और सशस्त्र विद्रोहियों पर भी दिखाना चाहिए ताकि उन्हें मुख्यधारा में लाया जाए। मुझे नहीं लगता कि जम्मू-कश्मीर के युवाओं को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की कोई मुहिम इन बुद्धिजीवियों ने छेड़ी है जबकि सुरक्षा बल वहां ऐसा कर रहे हैं। आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई वैचारिक और बौद्धिक भी होनी चाहिए, अन्तिम विकल्प तो सेना के पास फायरिंग ही है। सरकार को सोच-समझकर अफस्पा पर कदम उठाना चाहिए ताकि सैन्य बल कमजोर न हों क्योंकि अफस्पा हटाने से तो उनके लिए काम करना काफी जोखिम भरा हो जाएगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

2 + seventeen =

Girl in a jacket
पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।