स्वतन्त्र भारत की राजनीति में विपक्षी दलों का गठबन्धन बनना कभी भी अजूबा नहीं रहा है परन्तु ऐसे गठबन्धनों को भारत के लोगों ने तभी स्वीकार्यता दी है जब सत्तारूढ़ दल के प्रत्यक्ष ‘जोर-जबर’ से आम जनता पीिड़त रही हो और देश पर हुकूमत करने वाली पार्टी के बारे में जन अवधारणा पूरी तरह जन विरोधी हो चुकी हो। एेसा भारत में अभी तक केवल एक बार 1977 में ही हुआ है औऱ वह भी आधे-अधूरे मन से हुआ है। इससे पहले 1975 में दो साल तक केन्द्र में शासन कर रही कांग्रेस पार्टी की एकछत्र नेता स्व. इन्दिरा गांधी ने प्रधानमन्त्री रहते पूरे देश में आन्तरिक इमरजेंसी लगा दी थी जिसके 18 महीने बाद हटने पर देश के प्रमुख विपक्षी दल एक मंच पर आये और उन्होंने गठबन्धन बना कर जनता पार्टी के रूप में कांग्रेस के खिलाफ 1977 का चुनाव लड़ा और इसमें उन्हें दक्षिण भारत को छोड़ कर शेष भारत में अच्छी सफलता मिली और उनकी सरकार भी बनी परन्तु इससे पूर्व 1971 में जब इन्हीं प्रमुख दलों ने कांग्रेस के विरुद्ध गठबन्धन बना कर लोकसभा चुनाव लड़े थे तो उन्हें घनघोर असफलता प्राप्त हुई थी। उस समय भी केन्द्र में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ही थीं।
इन दोनों विपक्षी गठबन्धनों में अन्तर यह था कि 1971 में चुनावी तालमेल चार प्रमुख विपक्षी दलों के बीच हुआ था जबकि 1977 में इन सभी दलों का एक पार्टी जनता पार्टी में विलय हो गया था लेकिन इसके बावजूद 1977 में दक्षिण भारत के सभी चारों राज्यों ने जनता पार्टी को स्वीकार नहीं किया था और कांग्रेस के पक्ष खास कर इन्दिरा जी के पक्ष में अपना पूर्ण समर्थन दिया था। 1977 में बनी जनता पार्टी के पक्ष में एक तथ्य यह भी जा रहा था कि इसे बनाने के पीछे स्वतन्त्रता आन्दोलन के तपे हुए नेता स्व. जय प्रकाश नारायण व आचार्य कृपलानी का आशीर्वाद प्राप्त था। आज पूरे 46 वर्ष इस घटना को हो चुके हैं और भारत की राजनीति पूर्णतः एक चक्र से निकल कर दूसरे चक्र (आर्बिट) में घूम रही है जिसमें केन्द्र में कांग्रेस की जगह भाजपा बैठी हुई है।
भाजपा का मूल राजनैतिक मन्त्र अपने जनसंघ स्वरूपी जन्मकाल से ही हिन्दुत्व व राष्ट्रवाद रहा है। इसकी राजनीति भारतीयता के हिन्दू संस्कृति मूलक प्रतीकों को उकेर कर उनके चारों तरफ जन विमर्श खड़ा करने की रही है और भारत के इतिहास में जाकर इसके गौरव बिन्दुओं को झकझोरने की रही है जिसकी वजह से देश का एक बहुत बड़ा अल्पसंख्यक समाज सांकेतिक रूप से निशाने पर भी आता रहा है और भाजपा को स्वतः ही हिन्दू पार्टी भी बनाता रहा है।
पिछले 46 वर्षों में बहुत सी एेसी घटनाएं विशेष रूप से अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण आदोलन एेसा मुद्दा रहा है जिसकी वजह से भाजपा को पूर्ण रूपेण हिन्दू-राष्ट्रवादी पार्टी कहा जा सकता है परन्तु दक्षिण भारत आज भी इसके लिए कांटों भरी राह इसलिए है क्योंकि इन राज्यों की संस्कृति ही कट्टर हिन्दूपंथ की तरफदारी कभी भी करती हुई नजर नहीं आती है और इन राज्यों में सामाजिक सुधार के आन्दोलन धार्मिक आन्दोलनों की अपेक्षा बहुत भारी रहे हैं।
तमिलनाडु के ‘पेरियार’ से लेकर केरल के ‘श्री नारायण गुरु’ ने दलित उद्धार व पिछड़ों के उत्थान के लिए जो भी आन्दोलन शुरू किये उनका असर यहां की राजनीति पर भी पड़ा। दूसरी तरफ उत्तर भारत में भक्तिकाल के बाद एेसे सामाजिक सुधार आन्दोलन हमें देखने को कही नहीं मिलते हैं। सन्त कबीर और रैदास के बाद सामाजिक बदलाव की बात करने वाले नेता हमें केवल महात्मा गांधी ही नजर आते हैं। बेशक राजा राम मोहन राय से लेकर ज्योतिराव फुले आदि समाज सुधारक हुए मगर उनका प्रभाव सीमित क्षेत्रों में ही रह पाया। यही वजह रही कि महात्मा गांधी की कांग्रेस पार्टी का प्रभाव अखिल भारतीय स्तर पर सभी राज्यों में एक समय एक समान जैसा ही रहा और इसे चुनौती देना किसी एक राजनैतिक दल के बस की बात कभी नहीं रही परन्तु भाजपा के मामले में बिल्कुल एेसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसकी विचारधारा अखिल भारतीय स्तर पर आज भी स्वीकार्य नहीं मानी जाती। मगर दक्षिण भारत को छोड़ कर शेष भारत के सभी क्षेत्रों में जिस तरह इसने स्थानीय पार्टियों के साथ गठबन्धन करके अपना विस्तार किया है उससे इसकी विचारधारा भी किसी न किसी रूप में इन राज्यों में पहुंच रही है।
भाजपा मूल रूप से कांग्रेस की विचारधारा के खिलाफ 1951 में पैदा हुई पार्टी है। विडम्बना यह भी है कि आज के विपक्षी दलों में जितने भी दल कांग्रेस के ‘इंडिया’ गठबन्धन में शामिल हैं उनका जन्म भी कांग्रेस के विरोध में ही आजादी मिलने के बाद ही हुआ है। जिन 28 दलों से मिलकर इंडिया गठबन्धन बना है उनमें से कुछ दल तो एेसे हैं जो कांग्रेस से ही ताजा दौर के इतिहास में निकले हैं जिनमें तृणमूल कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के नाम प्रमुख हैं। यह इंडिया गठबन्धन लोकसभा चुनावों के लिए बना है। मगर लोकसभा चुनावों का इंडिया गठबन्धन का एजेंडा क्या केवल मोदी विरोध रहेगा अथवा विचारधारा के स्तर पर भाजपा का विरोध रहेगा इस बारे में इन 28 दलों में एका किस प्रकार होगा? कोई विश्वास के साथ नहीं कह सकता।
हकीकत तो यह है कि 28 में से 27 विपक्षी दलों ने कांग्रेस को बुरी तरह फंसा दिया है क्योंकि इन सभी 27 दलों को अच्छी तरह मालूम है कि राष्ट्रीय चुनावों के विमर्श में उनके पास आम मतदाता को देने के लिए कुछ नहीं है। वे केवल क्षेत्रवाद व जातिवाद ही दे सकते हैं जबकि लोकसभा चुनाव में देश की अस्मिता दांव पर होती है। इसलिए राजनीति का सीधा रसायन शास्त्र ही जब यह कह रहा है कि राष्ट्रीय चुनाव मुख्य रूप से कांग्रेस व भाजपा के बीच में ही होने हैं तो इंडिया गठबन्धन के अन्य दल तो केवल अपना वजूद बचाने की जुगाड़ लगा रहे हैं क्योंकि उन्हें अवलम्ब तो कांग्रेस पार्टी और उसकी नीतियां ही देगी। मगर ये सभी पार्टियां मिलकर बहुत करीने से कांग्रेस का कद छोटा कर देना चाहती हैं और उसे गठबन्धन धर्म के नाम पर लोकसभा की कम से कम सीटें लड़ने के लिए देना चाहती हैं। उनका तर्क रहता है कि उनकी स्थिति उनके राज्य में कांग्रेस से बेहतर है। यह स्थिति पहली नजर में ही भाजपा को चुनाव जितवा देती है। क्योंकि उसका नजरिया और विचारधारा व नेता स्पष्ट है।
इंडिया गठबन्धन का यह तीव्र विरोधीभास भाजपा को उत्तर भारत में ऊपरी हाथ स्वाभाविक रूप से दे देता है क्योंकि अभी सम्पन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में हमने देखा कि किस प्रकार इंडिया गठबन्धन के ही समाजवादी पार्टी व आम आदमी पार्टी दल किस तरह मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ तक में चुनाव लड़ने पहुंच गये परन्तु इन राज्यों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत बजाये गिरने के बढ़ा ही है जो यह बताता है कि विचारधारा के स्तर पर कांग्रेस की स्वीकार्यता में कमी दर्ज किसी भी सूरत में नहीं हो रही है।
दुखद तो यह है कि जब भी कांग्रेस के किसी जन विमर्श को इसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे से लेकर राहुल व प्रियंका गांधी संवेग (मूमेंटम) देने का प्रयास करते हैं तभी कोई न कोई इंडिया गठबन्धन का दल ही उसमें फांस डालने का काम कर देता है। जबकि लड़ाई लोकसभा चुनावों के लिए बिजली, पानी, सड़क की नहीं बल्कि राष्ट्रीय नीतियों की होती है। राष्ट्र की परिकल्पना पर कांग्रेस और भाजपा दोनों सीधे एक-दूसरे के आमने- सामने आते हैं। अतः चुनावी लड़ाई भी तो फिर इन दोनों के ही बीच में होनी चाहिए।