नई दिल्ली : मनुष्य बौद्धिक और सभ्याचारी अभिव्यक्ति के अभाव में नहीं रह सकता है। भाषा ही इस अभिव्यक्ति को महसूस कराती है। कोई भी भाषा विचार को बढ़ावा देती है। 15वीं शताब्दी से पंजाबी संस्कृति की अभिव्यक्ति गुरमुखी द्वारा हुई है जिसे सिख पंथ की उत्पत्ति को बढ़ावा मिला है। उक्त बातें दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के श्री गुरु तेग बहादुर खालसा कॉलेज में शुक्रवार को अंतरराष्ट्रीय पंजाबी कॉन्फ्रेंस के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कही। खालसा कॉलेज का यह रिवाज रहा है कि किसी भी क्रार्यक्रम की शुरुआत ‘सबद’ के बाद ही की जाती है। इसके बाद मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित हुए डॉ. मनमोहन सिंह ने इसका उद्घाटन कर सम्मेलन के आयोजन किए जाने पर सभी को बधाई दी और कहा कि लेखकों और विद्वानों द्वारा भाषा को लेकर शुरू किया गया यह प्रयास एक दिन मील का पत्थर साबित होगा।
उन्होंने कहा कि किसी भी भाषा के लिए जबसे जरूरी जिज्ञासा का होना है और वह भाव हमारे मन से लेख, कविता और साहित्य के जरिए ही निकलता है। पंजाबी भाषा को बचाने के लिए वर्षों से संघर्ष जारी है, लेकिन जीत हमेशा उसी की होती है जिसके विचार उत्तम होते हैं। छोटी मानसिकता अपने आप ही मर जाती है। उन्होंने कहा कि कोई भी भाषा बोलचाल से नहीं, बल्कि विचार से समाज में स्थापित होती है। संस्कृति के उत्थान के लिए भाषा जरूरी होती है। उन्होंने कहा कि बाबा फरीद के मीठे श्लोकों ने इस्लामिक संस्कृति को गंगा-जमुनी तहजीब के साथ जोड़ा था। सूफी दरवेश के कारण पंजाबी भाषा सिंधू नदी से यमुना नदी तक पहुंची थी। उसके बाद गुरुनानक देव जी ने पंजाबी भाषा को गुरबाणी में इस्तेमाल करके न केवल भाषा को नया उत्साह बख्शा बल्कि सुलझा हुआ, सेहतमंद तथा रचनात्मक जीवन जीने का संदेश दिया।
गुरु अमरदास ने गुरमुखी लिपी की रचना करके पंजाबी भाषा को नया रूप तथा रंग दिया। महाराज रणजीत के शासनकाल में शिक्षा का प्रचार-प्रसार सबसे अधिक हुआ था। इसके कारण उनके राज में साक्षरता की दर सबसे अधिक हो गई थी। 1947 में देश के बंटवारे के बाद पश्चिम पंजाब से उजड़ कर दिल्ली शहर में आए लाखों पंजाबियों ने दिल्ली को पंजाबियों का शहर बना दिया। आज दिल्ली शहर पंजाबी भाषा के प्रचार-प्रसार तथा प्रकाशन का बड़ा केन्द्र बन चुका है। इसलिए अपनी भाषा की अमीरी को समझने तथा अपनाए जाने की जरूरत है।
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